अपवाह तंत्र तथा प्रतिरूप

अपवाह  तंत्र तथा प्रतिरूप


            अपवाह  तंत्र से अभिप्राय नदियों के उस तंत्र जाल से हैं जिसमें धरातलीय जल प्रवाहित होता है। किसी भी क्षेत्र या प्रदेश के अपवाह जाल की विशेषताओं का अध्ययन दो रूपो में किया जाता है।
1.         अपकेन्द्रीयत्मक उपागम
2.               जननिक उपागम
          वर्णनात्मक उपागम के अन्तर्गत क्षेत्र विशेष की सरिताओं के आकार  तथा प्रतिरूप  की विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है। जबकि जननिक उपागम के अन्तर्गत क्षेत्र विशेष की सरिताओं के उद्भव एवं विकास का उस क्षेत्र के शैल प्रकार भौमिकीय संरचना विवर्तनिकी तथा जलवायु दशाओं के सन्दर्भ में अध्ययन किया जाता हैं इस तरह अपवाह तंत्र का सन्दर्भ सरिताओं की उत्पत्ति तथा उनके समय के साथ विकास से होता है। जबकि अपवाह प्रतिरूप  का सन्दर्भ क्षेत्र विशेष की सरिताओ ं के ज्यामितीय रूप तथा स्थानिय व्यवस्था से होता है।
किसी भी प्रदेश में अपवाह तंत्र की उत्पत्ति तथा समय के साथ विकास दो प्रमुख कारकों द्वारा निर्धारित तथा नियंत्रित होता है।
प्रारम्भिक धरातलीय सतह की प्रकृति तथा ढाल
भौमिकिय संरचना  वलन  भ्रंश विदर संधि नीति नीतिल्ब तथा शैल

अपवाह  तंत्र की सरिताओं को दो प्रमुख वर्गो में विभाजित किया जाता हैं।
 (अ)  क्रमिवर्ती सरिता
   (ब)  अक्रमवर्ती सरिता

क्रमिवर्ती सरिता:-  
          जो क्षेत्र विशेष के ढाल के अनुरूप प्रवाहित होती है तथा भौमिकिय संरचना  के साथ समायोजित होती है। ये नदियाॅ निम्न हैं अनुवर्ती सरिता - किसी भी क्षेत्र में सर्वप्रथम अनुवर्ती सरिता का  उद्भव होता है। ये सरिताओं क्षेत्रीय धरातल के प्रारम्भिक ढाल के अनुरूप् प्रवारित होती हैं। दूसरे शब्दों में अनुवर्ती नदियों प्रादेशिक ढाल का अनुसरण करती है।  इन्हें नति सरिता भी कहते हैं। वलित पर्वतीयय क्षेत्रों में अनुवर्ती नदियों का अभिनतीय गर्तों में उद्भव होता है। ऐसी नदियों को अभिनतीय अनुवर्ती सरिता कहते हैं। बाद में चलकर विकसित जालीनुमा अपवाह प्रतिरूप में ये मुख्य अनुवर्ती नदियाॅ होती है। सागर तल से ऊपर उठे तटीय मैदान में सर्वप्रथम उत्पन्न होने बाली सरितायें अनुवर्ती सरिता होती हैं जो एक दूसरे के समानान्तर होती हैं। इनमें से सबसे लंबी सरिता को प्रमुख अनुवर्ती कहते हैं। अनुवर्ती नदियों की उत्पत्ति तथा विकास के लिए सर्वाधि अनुकूल स्थलाकृति शंकु तथा गुम्बदीय संरचना होती है। अनुवर्ती नदियों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता
1.                      अनुदैध्र्य अनुवर्ती - जो वलित संरचना में अभिनतियों का अनुसरण करती है, तथा
2.        पाश्र्ववर्ती अनुवर्ती- जो अपनतियों के पाश्र्व भागों पर विकसित होती हैं। पाश्र्ववर्ती अनुवर्ती नदियाॅ प्रमुख अनुवर्ती या अभिनतीय अनुवर्ती नदियों से समकोण पर मिलती है। जब तटीय भाग का सागर से निर्गमन होता है तो प्राचीन स्थल से निकलने वाली नदियाॅ इन तटीय मैदानों से होकर सागर में मिलती है। इस प्रकार की नदियों का विस्तृत अनुवर्ती कहा जाता है।
परवर्ती सरिता:-
        अनुवर्ती सरिताओं के बाद उत्पन्न तथा अपनतियों या कटकों के अक्षों का अनुसरण करने वाली सरिताओं को परवर्ती सरिता कहते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार परवर्ती नदियाॅ अपनतिसों के पाश्र्वभागों पर उत्पन्न होकर अभिनतीय प्रमुख परवर्ती नदियों से समकोण पर मिलती हैं(इस तरह ऊपर वर्णित पाश्र्ववर्ती अनुवर्ती ही परवर्ती सरिताएॅ हैं) जबकि अन्य का मानना है कि परवर्ती नदियाॅ प्रमुख अनुवर्ती के समानान्तर होती है। ऊलरित तथा मार्गन के अनुसार प्रमुख अनुवर्ती की प्रथम पीढी की सभी सहायक नदियाॅ परवर्ती होती हैं क्योंकि इनका उद्भव प्रधान अनुवर्ती के बाद(परवर्ती माने जाने के बाद) होता है। कुछ विद्वानों का कहता है कि जितनी भी सरिताऐं प्रमुख अनुवर्ती से अनुप्रस्थ (यानी समकोण पर) रूप में मिलती हैं वे सभी परवर्ती होती हैं। देहरादून घाटी में गंगा और यमुना नदियाॅ प्रमुख अनुवर्ती हैं जबकि यमुना की सहायक असान नदी तथा गंगा की सहायक सांग नदी परवर्ती नदियों की उदाहरण हैं।

प्रतिअनुवर्ती सरिता:-
              प्रधान अनुवर्ती सरिता की प्रवाह दिशा के विपरीत दिशा में प्रवाहित होने वाली सरिता को प्रतिअनुवर्ती सरिता कहा जाता है। वास्तव में प्रतिअनुवर्ती भी अनुवर्ती सरिता ही होती है क्योंकि वह भी ढाल के अनुरूप ही प्रवाहित होती है। प्रति अनुवर्ती परवर्ती से समकोण पर मिलती है। उदाहरण के लिए सिवालिक श्रणियों से निकजकर उन्नर दिशा में प्रवाहित होने वाली सरिताएं प्रतिअनुवर्ती हैं क्योंकि ये दक्षिण दिशा में प्रवाहित होने वाली प्रधान अनुवर्ती गंगा तथा यमुना की सहायक पूर्व-पश्चिम दिशा में प्रवाहित होने वाली परवर्ती नदियों से समकोण पर मिलती हैं।

नवानुवर्ती सरिता:-
      प्रधान अनुवर्ती सरिता की प्रवाह दिशा के अनुरूप दिशा में प्रवाहित होने वाली सरिता को नवानुवर्ती सरिता कहा जाता है। प्रधान अनुवर्ती की तुलना में नवानुवर्ती का उद्भव बहुत बाद मेें होता है। नवानुवर्ती सरिता का उद्भव वलित संरचना पर द्वितीय अपरदन चक्र के समय होती है। प्रथम अपरदन चक्र के दौरान वलित पर्वतों के अपरदन के कारण उच्चावच प्रतिलोपन हो जाता है। जिस कारण अपनतियों के स्थान पर अपनतीय घादियों और अभिनतियों के स्थान पर अभिनतीय कटक का निर्माण होता है। परिणामस्वरूप अपनतीय घाटियों में अनुदैध्र्य सरिताओं का आविर्भाव होता है। प्रथम अपरदन चक्र के अन्त में इन आकृतियों का अपरदन होने से समतलीकरण के फलस्वरूप समप्राय मैदान का निर्माण होता है। द्वितीय अपरदन चक्र के प्रारम्भ होते ही प्रारम्भिक मौलिक अभिनतियों में सरिताओं का आविर्भाव होता है जो नवानुवर्ती कही जाती है। यद्यपि ये नवानुवर्ती सरिताऐं प्रारम्भिक मौलिक अनुदैध्र्य अनुवर्ती सरिताओं के अनुरूप होती हैं परंतु नवानुवर्ती उनकी तुलना में सैकडों मीटर नीचे विकसित होती हैं।

अक्रमवर्ती अपवाह तंत्र:-
         जो नदियाॅ प्रादेशिक ढाज के अनुरूप न होकर प्रतिकूल दिशा में तथा भौमिकीय संरचना के आर-पार प्रवाहित होती हैं उन्हें अक्रमवर्ती सरिता कहते हैं। इस तरह के अक्रमवर्ती अपवाह तंत्र के अंतर्गत पूर्ववर्ती तथा पूर्वारोपित सरिताएॅ अधिक महत्वपूर्ण हैं।

पूर्ववर्ती अपवाह तंत्र:-
       पूर्ववर्ती जलधारा उसे कहते हैं जिसका आविर्भाव स्थलखण्ड में उत्थान के पहले हो चुका है। साधारण अर्थों में पहले से प्रवाहित होने वाली जलधारा की पूर्ववर्ती कहते हैं, जिस पर संरचना या स्थलखण्ड के उत्थान का प्रभाव नहीं पडता है। यदि नदी घाटी का विकास किसी स्थान विशेष पर हो जाता है और उसके बाद यदि नदी के मार्ग में स्थलखण्ड में उत्थान होता हो तो पूर्ववर्ती नदी ऊंचे उठे स्थलखण्ड को काटकर अपने पुराने मार्ग एवं घाटी को सुरक्षित रखती है। इस प्रकार परिभाषा के रूप में ’पूर्ववर्ती नरियाॅ वे जलधाराऐं हैं जो कि स्थलखण्ड में उत्थान होने पर भी अपने पहले मार्ग को ही अपनाती हैं।’ इस तरह पूर्ववर्ती नदियाॅ अपने धरातलीय ढाल तथा संरचना से समायोजित नहीं होती हैं। पूर्ववर्ती नदियों को अक्रमवर्ती जलधारा भी कहा जा सकता है। चूॅकि ये जलधाराएं स्थानीय ढाल का अनुसरण नहीं करती हैं, अतः इन्हें विलोम अनुवर्ती या प्रति-अनुवर्ती जलधारा भी कहा जा सकता है। पूर्ववर्ती नदी के इलिए उत्थान के स्वभाव का अध्ययन आवश्यक है तथा सभी प्रकार के उत्थान के समय नदी अपने पहले वाले मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि स्थलखण्ड का उत्थान अचानक बडे पैमाने पर होता है एवं थोडे ही समय में पूरा स्थलखण्ड अत्यधिक ऊंचाई को प्राप्त हो जाता है तो पहले वाली सरिताएं नवीन ऊंचे स्थलखण्ड का सामना नहीं कर पायेंगी और छिन्न-भिन्न हो जायेगी। इससे स्पष्ट है कि पूर्ववर्ती जलधारा के लिए उत्थान का धीरे-धीरे मन्द गति से होना आवश्यक है ताकि नदी अपनी घाटी का निम्न कटाव द्वारा गहरा करके अपने पहले मार्ग को कायम रख सके। उत्थान के विषय में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि वह स्थानीय होना चाहिए, न कि प्रादेशिक। जब नदी के मार्ग में किसी सीमित स्थान पर उत्थान होता है तथा नदी यदि उस उठे भाग को काटकर इपनाप पहला मार्ग कायम रखती है, तभी उसे पूर्ववर्ती सरिता कहा जा सकता है, अन्यथा यदि समस्त भाग, जिससे होकर जलधारा प्रवाहित होती है, ऊपर उठ जाता है तो पूर्ववर्ती जलधारा का विकास नहीं हो सकेगा। अन्तिम महत्वपूर्ण तथ्य उत्थान तथा नदी द्वारा निम्न कटाव के बीच अनुपात से संबंधित है। यदि उत्थान का अनुसरण कर सके अर्थात् नदी का कटाव यदि उत्थान की दर से बराबर या अधिक है, तभी नदी अपनी पहली घाटी को कायम रख सकती है, अन्यथा स्थलखंड अधिक ऊपर उठ जाएगा।

पूर्ववर्ती अपवाह तंत्र के विकास की प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय अवस्थायेंः-
     पूर्ववर्ती नदी के विकास की अवस्थाओं को स्पष्ट किया जा सकता है। नदी में नवोन्मेष के कारण उसके कटाव की क्षमता अधिक हो जाती है। इस कारण नदी अपनी घाटी को निम्न कटाव द्वारा गहरा करना प्रारम्भ कर देती हैं। नदी घाटी के गहरा होने की दर तथा स्थलखण्ड के ऊपर उठने की दर बराबर हो तो नदी का तल वही होता हैंैं, अतः घाटी की दीवारों की ऊंचाई अधिक होती जाती है जो कि एक निश्चित समय के बाद गार्ज का निर्माण करती है। अत; उत्थान की दर एवं निम्न कटाव की उर समान होगी तो नदी का तल ऊंचा ही रह जायेगा। ऐसी स्थिति में नदी उत्थान की दर के कुछ अधिक कटाव करती हैं। ताकि वह उत्थान से पहले वाले तल एवं घाटी से होकर कर ही प्रवाहित हो।  नदी ने अपने निम्न कटाव द्वारा अपनी घाटी तथा प्रवाह मार्ग को प्राप्त कर लिया हैं। नदी ने अपनी घाटी को इतना गहरा कर रखा हैं कि गार्ज  का निर्माण हो गया है जिसमें नदी तल से उसके किनारे की दीवारे अत्यन्त ऊंची हैं । स्थलखण्ड के उत्थान होने पर भी अपने तल को पूर्वत बनायें रखने वाली जल धारा को पूर्ववर्ती कहते है तथा उससे निर्मित घाटी को पूर्ववर्ती घाटी कहते हैं। पूर्ववर्ती जलधाराओं के सामूहिक क्रम को पूर्ववर्ती अपवाह तंत्र कहा जाता हैं।
पूर्ववर्ती नदियों के उदाहरण प्रायः हर पर्वतीय क्षेत्र में मिलते है हिमालय पर्वत को काटकर आरपार प्रवाहित होने वाली सिंध एवं ब्रह्म पुत्र नदियाॅ निश्चित ही पूर्ववर्ती जल धारा का उदाहरण  प्रस्तुत करती हैं । हिमालय के उत्थान के साथ ही साथ इन्होंने अपने निम्न कटाव द्वारा अपने प्राचीन मार्ग को अंगीकृत किया तथा वर्तमान समय में ये तंग घाटियों गार्ज से हो कर बहती हैं सिंधु नदी गिलगित के पास हिमालय की श्रेणियों को काटकर 17000 फीट गहरे गार्ज से प्रवाहित होती है।
हिमालय की अधिकांस नदियों पूर्ववर्ती हैं - सिंधु , सतलज, गंगा, काली, गंडक, तिस्ता, ब्रह्मा पुत्र हिमालस तंत्र में पश्चिम पूर्व फैली तीन समान्तर श्रेणियाॅ पायी जाती हैं
(1)बृहत हिमालय
(2) लेसर हिमालय
(3)सिवालिक श्रेणियाॅ
(2) पूर्वारोपित अपवाह तंत्र
 पूर्ववर्ती सरिता के समान ही पमर्वारोपित या अध्यारोपित सरिता बपने प्रवाह स्थल की संरचना के साथ समायोजित नही होती है। अर्थात वह  स्थलखण्ड के ढाल का अनुसरण करती वाली हैं। भूमिगत संरचना का ढाल या भूमिगत शैलो के स्तर का स्वभाव उसके बिछे शैल आवरण अपने निचे ़िस्थत शैल की संरचना से भिन्न होता हैं जब ऊपरी आवरण पर नदी की घाटी का विकास हो चुका है। तो नदी निम्न कटाव द्वारा अपनी निर्मित घाटी का विस्तार तथा विकास निचली संरचना पर भी करती हैं,चाहे वह ऊपरी संरचना से भिन्न ही क्यों न हो इस अवस्था में निचली संरचना  को ऊपरी शैल आवरण में निर्मित घाटी के आकार और स्वभाव को स्वीकार करना पडता हैं। ऐसी अवस्था में ऊपरी आवरणवाली घाटी का निचली संरचना पर आरोपण कर दिया गया हैं इस तरह की घाटी वाली सरिता को अध्यारोपित सा पूर्वारोपित सरिता कहा जाता है।इ इन जलधाराओं की घाटियाॅ स्थानिय संरचना के विरूद्व होती हैं। इन घाटियों को माव महोदय तथा पावेल महोदय ने  ेनचमतपउचवेमक की संज्ञा दी है। जबकि मैगी महोदय ने केवल ेनचमतचवेमक कहा हैं।़
ऐसी संरचना वाला भाग हैं जिसमें ऊपरी भाग पर परतदार शैल का आवरण है जो कि समानान्तर स्तरवाली है। उसके नीचे वाले भाग में बलित संरचना का एक अपनतिवाला भाग है। नदी निम्न कटाव द्वारा अपनी घाटी का विकास ऊपरी परतदार सतह में पूर्णतया कर लेती है। अब नदी की घाटी अपनति वाले भाग पर आ जाती है। यहाॅ की संरचना ऊपरी संरचना से सर्वथा भिन्न है, परंतु नदी अपनी ऊपरी घाटी के अनुसार ही इस निचली अपनति पर निम्न कटाव करके अपनी घाटी का निर्माण करती है। नदी की घाटी के विकास में अपनति का कोई प्रभाव नहीं है। यदि यह अपनति स्थल के ऊपर रही होती तो घाटी का स्वरूप कुछ और ही रहा होता। अतः वैसी ही घाटी अपनति पर बनी है अर्थात् ऊपरी आवरण शैल वाली घाटी का आरोपण निचली अपनति पर कर दिया गया है।
     ग्रेटब्रिटेन में तलेक डिस्ट्रिक्ट में भी पूर्वारोपित अपवाह तंत्र के उदाहरण मिलते हैं। दक्षिण पूर्व में छोटा नागपुर पठार पर चन्दिज के पश्चिम में स्वर्णरेखा नदी का डाल्मा एवं फाइलाट पहाडियों पर अध्यारोपित हुआ है। किसी भी क्षेत्र में, इस प्रकार, पूर्वारोपित जलधाराओं के समूह और क्रम को ’ पूर्वारोपित अपवाह तंत्र’ कहा जाता है। इनकी दो प्र्रमुख पहचानें हैं-
अ घाटियों के ऊपर प्राथमिक आवरण शैल के, जिसके ऊपर सर्वप्रथम नदी की घाटी का विकास हुआ था, अवशेष दिखाई पडते हैं तथा
अ इन नदियों की घाटियाॅ संरचना के विपरीत भी होती हैं या यों कहें कि इनका संरचना से कोई संबंध नहीं होता है।

    मध्य प्रदेश में रींवा पठार के दक्षिण भाग में कैमूर श्रेणियों तथा खेन्जुआ श्रेणियों के आर-पार प्रवाहित होने वाली सोन नदी पूर्वारोपित नदी का प्रमुख उदाहरण है। सोन नदी पश्चिम में महानदी के संगम ( उत्तरी अक्षांश एवं  पूर्वी देशांतर ) से उत्तर में स्थित कैमूर श्रेणियों से सटकर बहती है तथा  पूर्व से  पूर्वी देशांतर के बीच उक्त श्रेणियों से दूर हट जाती है तथा मियाण्डर का निर्माण करती है। आगे चलकर (पूर्व की ओर) यह पुनः कैमूर श्रेणियों के पास आ जाती है तथा देवलन्द के पास कैमूर को काटकर दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर मुड जाती है। पुनः बनास नदी से संगम बनाने के बाद उत्तर दिशा की ओर मुड जाती है तथ खेन्जुआ श्रेणियों को काटकर अपना मार्ग बनाने के बाद पूर्व की ओर मुड जाती है। निचली विन्ध्यन क्रम की अवसादी शैलों के निर्माण के बाद रींवा पठार के इस दक्षिणी भाग में वलन तथा भ्रंशन की क्रियाऐं हुई हैं तथा कैमूर श्रेणियों का निर्माण हुआ।

अपवाह प्रतिरूप:-
                किसी भी प्रदेश या क्षेत्र में अपवाह तंत्र के ज्यामितीय आकार तथा सरिताओं की स्थानिक व्यवस्था को अपवाह प्रतिरूप कहते है। किसी भी प्रदेश की सरिताओं की अवस्थिति, संख्या तथा प्रवाह दिशा उस प्रदेश के धरातलीय ढाल, संरचनात्मक नियंत्रण, शैलों की विशेषताओं, विवर्तनिक कारकों तथा हलचलोें, जलवायु संबंधी दशाओं, वनस्पति संबंधी विशेषताओं आदि पर निर्भर होती है।
     सामान्य रूप से निम्न प्रकार के अपवाह प्रतिरूपों का निर्धारण किया गया है-



1.जालीनुमा अपवाह प्रतिरूप:-
          जलीनुमा अपवाह प्रतिरूप का विकास संरचना में ढाज के अनुरूप विकसित प्रधान अनुवर्ती सरिता तथा उसकी सहायक सरिताओं के प्रवाह जाल द्वारा होता है। इस तरह के प्रतिरूप् का विकास सामान्यतया समानान्तर अपनतीय कटकाों तथा अभिनतीय घाटियों वाली सरल वलित संरचना वाले भाग में होता है। अभिनतीय घाटियों में प्रधान अनुवर्ती सरिताओं का उद्भव होता है
२.  पादपाकार अपवाह प्रतिरूप:-
            इस अपवाह प्रतिरूप को द्रुमाकृति या वृक्षाकार अपवाह प्रतिरूप की भी संज्ञा प्रदान की जाती है। इस प्रकार की सरिताओं का विकास प्रमुख रूप से सपाट तथा चैरस विस्तृत भागों में होता है। ग्रेनाइट शैलवाले भाग में इनका विस्तार सर्वाधिक होता है। ऐसी जलधाराओं वाले प्रवाह क्रम को ’ पादपाकार अपवाह प्रतिरूप ’ कहा जाता है।
3.आयताकार अपवाह प्रतिरूप:-
            आयताकार अपवाह प्रतिरूप में भी सहायक नदियाॅ अपनी मुख्य नदी से समकोण पर मिलती हैं, परंतु यह अपवाह प्रतिरूप, अनुवर्ती तंत्र से सर्वथा भिन्न है, क्योंकि अन्त में नदियाॅ ढाल के अनुरूप होती हैं एवं उनके मिलने का कोण उस स्थज के नतिलम्ब तथा नति द्वारा निर्धारित होता है, परंतु आयताकार अपवाह प्रतिरूप में नदियों के मिलने के स्थान का कोण चट्टान की संधियों के स्वभाव द्वारा निर्धारित होेता है। अतः आयताकार प्रतिरूप का विकास प्रायः उन क्षेत्रों में होता है, जहाॅ पर चट्टानों के जोडे तथा संधियाॅ आयत के रूप में होती हैं।

4.अपकेन्द्रीय अपवाह प्रतिरूप:-
           चूॅकि इस प्रकार के प्र्रतिरूप नदियाॅ एक स्थान से निकलकर चारों तरफ प्रवाहित होती हैं, अतः इस प्रकार के अपवाह प्रतिरूप को ’केन्द्रत्यागी या आरीय अपवाह क्रम’ भी कहा जाता है। इस तरह के अपवाह प्रतिरूप के विकास के लिए आवश्यक दशाएॅ गुम्बदाकार पर्वत या ज्वालामुखी शंकुओं से मिलती हैं, जहाॅ पर ऊपरी केन्द्र से चारों तरफ प्रायः समान ढाल होता है। नदियाॅ ऊपरी केन्द्र से निकलकर चारों दिशाओं की ओर प्रसारित होती है। यहाॅ पर जलधाराएं ढालों का अनुसरण करती हैं, अतः मौलिक रूप मेें वे अनुवर्ती जलधाराऐं ही होती हैं।

5.अभिकेन्द्रीय अपवाह प्रतिरूप:-
              अभिकेन्द्रीय अपवाह प्रतिरूप अपकेन्द्रीय अपवाह प्रतिरूप से एकदम विपरीत होता है क्योंकि इस व्यवस्था में नदियाॅ चारों तरफ से निकल कर एक केन्द्र की ओर आती है। फलस्वरूप इन्हें ’केन्द्रोन्मुखी अपवाह प्रतिरूप’ भी कहा जाता है। इस तरह की व्यवस्था में नदियाॅ प्रायः उक झील या गर्त भाग में आकर गिरती हैं। उन ज्वालामुखी के शंकुओं में जिनमें क्रैटर झील का आविर्भाव हो जाता है, केन्द्रोन्मुख अपवाह प्रतिरूप का विकास हो जाता है।

6.   वलयाकार अपवाह प्रतिरूप:-
              वलयाकार अपवाह प्रतिरूप का ’चक्राकार क्रम’ भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें जलधाराएं एक वृत्त के आकार में फैली होती हैं। इस तरह के अपवाह प्रतिरूप मुख्य रूप से प्रौढ़ एवं घर्षित गुम्बदीय पर्वतों में विकसित होते हैं। इन गुम्बदों पर नदियां उनकी परिक्रमा करती हुई प्रवाहित होती है।

7.   कंटकीय अपवाह प्रतिरूप:-
               जब मुख्य नदी के ऊपरी भाग में ऐसी सहायक जलधाराएं मिलती हैं जिनके प्रवाह की दिशा मुख्य नदी के विपरीत हुआ करती है तो इन सहायक नदियों द्वारा निर्मित प्रवाह क्रम को कंटकीय अपवाह प्रतिरूप कहते हैं। इस प्रकार के प्रतिरूप का विकास प्रायः सरिता अपहरण वाले क्षेत्रों में होता है।

8. परनुमा अपवाह प्रतिरूप:-
            परनुमा अपवाह प्रतिरूप का विकास खडे ढाल वाली श्रेणियों से आवृत संकरी अनुदैध्र्य घाटियों वाले भागों में होता है। पाश्र्ववर्ती समान्तर पर्वत श्रेणियों के तीव्र ढालों से सरिताये निकलकर प्रधान अनुदैध्र्य अनुवर्ती सरिता से  न्यून कोण पर मिलती है। ऊपरी सोन नदी एवं नर्मदा का अपवाह जाल परनुमा अपवाह प्रतिरूप का उदाहरण है।
9. हेरिंगअस्थि अपवाह प्रतिरूप:-
       हेरिंगअस्थि अपवाह प्रतिरूप, जो पसली प्रजिरूप के नाम से भी जाना जाता है। इसका विकास तेज ढाल वाली पर्वत श्रेणियों के मध्य विस्तृत घाटियों वाले भागों में होता है। अनुदैध्र्य समानान्तर घाटियों में प्रधान अनुदैध्र्य अनुवर्ती सरिताओं का पहले विकास होता है। झेलम नदी के उत्तरी भाग में इस तरह के प्रतिरूप का विकास हुआ है। हिमालय में पश्चिम-पूर्व दिशा में फैली घाटियों में हेरिंगअस्थि अपवाह प्रतिरूप का आविर्भाव हुआ है।

10.                  समानान्तर अपवाह प्रतिरूप:-
         समानान्तर अपवाह प्रतिरूप के अंतर्गत अनेक नदियाॅ एक दूसरे के समानान्तर प्रवाहित होती हुई प्रादेशिक ढाल का अनुसरण करती है, इस तरह का प्र्रतिरूप समान ढलुआ सागर तटीय मैदान या क्वेस्टा मैदान पर अधिक होता है। भारत के पश्चिमी तटीय मैदान पर इस तरह के कई अपवाह प्रतिरूप विकसित हुआ है। पूर्व तटीय भाग पर भी समानान्तर प्रतिरूप का विकास हुआ है।

11.                 अनिश्चित अपवाह प्रतिरूप:-
          जब किसी स्थान विशेष पर नदियाॅएवं उनकी सहायक दर सहायक नदियाॅ एक दूसरे से इतनी गुथी होती है कि उनके प्रवाह मार्ग या अपवाह प्रतिरूप का निश्चय करना कठिन हो जाता है तो उस प्रणाली को अनिश्चित प्रवाह क्रम या जटिल अपवाह प्रतिरूप कहा जाता है। ऐसा प्रायः उन प्रदेशों में होता है जहाॅ पर अनेक छोटी-छोटी झीलें पाई जाती हैं। फिनलैंण्ड का अपवाह प्रतिरूप एक अनिश्चित अपवाह प्रतिरूप का उदाहरण है।


12.                प्रच्छन्न अपवाह प्रतिरूप:-
          अर्धशुष्क मरूस्थलीय भागों में मौसमी जलधाराऐं उपर्युक्त अपवाह प्रतिरूप का रूप धारण करती है, क्योंकि जल की प्राप्ति वर्ष भर नहीं हो पाती है। इस प्रवाहक्रम के अंतर्गत उन जलधाराओं को भी सम्मिलित किया जाता है जिनका जल थोडे समय के लिए पथरीली एवं बडे-बडे कंकड वाली भूमि में छिप जाता है। हिमालय से निकलने वाली अधिकांश भारतीय नदियों का जल भाबर प्रदेश में लिप्त हो जाता है। इस अपवाह प्रतिरूप को विशेषात्मक अपवाह प्रतिरूप भी कहा जाता है।

13.                 भूमिगत अपवाह प्रतिरूप:-
              चूने की चट्टान वाले क्षेत्र में सतह का जल रिसकर भूमि के अंदर चला जाता है जहाॅ पर छोटे पैमाने पर मन्द गति से चलने वाली जल धाराओं का विकास होता है जिससे अनेक प्रकार की स्थलाकृतियोें का निर्माण होता है। पूर्ववर्ती यूगोस्लाविया के कास्र्ट प्रदेश दक्षिणी फ्रांस के कॅजे डिस्ट्रिक्ट तथा इग्लैण्ड के सरे प्रदेश में भूमिगत अपवाह प्रतिरूप का विकास हुआ है। ं

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